Sunday, October 30, 2011

‘जन्मशताब्दी गुरूवर की आई’


सौ साल के बाद यह मंगल बेला आई....
जन्मशताब्दी गुरूवर की आई।
              हरिद्वार की पावन धरती
              आज फिर से है जगमगाई
              अलख जगाकर रौशन कर दो
              जन्मशताब्दी गुरूवर की आई।
नई उमंग है नई तरंग है
चारो तरफ हर्षोल्लास है
इस धरती पर सतयुग लाने
जन्मशताब्दी गुरूवर की आई।
              गुरूवर के सपने सच होंगे
              मन में यह विश्वास है
              उनके सद्विचारों को फैलाने
              जन्मशताब्दी गुरूवर की आई।
गुरूदेव का आशीष है हम पर
श्रद्धा से गुणगान करें
सत्पथ पर अग्रसर कराने
जन्मशताब्दी गुरूवर की आई।
             देश-विदेश के लाखों लोग होंगे
             इस दिव्य अलौकिक केन्द्र में
             विश्व बन्धुत्व का भाव जगाने
             जन्मशताब्दी गुरूवर की आई।
समता का पाठ पढ़ाने
राग-द्वेष सब बैर मिटाने
अपना आप बोध कराने
जन्मशताब्दी गुरूवर की आई।


Tuesday, October 25, 2011

एक अद्भुत अनुभव टिहरी का


 
जीवन एक यात्रा है। विभिन्न शहरों और स्थलों में भ्रमण करते समय मन में कभी-कभी यह विचार आता है कि मानो जन्नत का दर्शन हो गया है तथा वहां बस जाने का मन करता है। कुछ जगह ऐसी होती हैं जहां कदम रखते ही मन पवित्र अनुभूतियों से भर जाता है, श्रद्धा से शीश झुक जाता है। ऐसी ही एक जगह है उत्तराखण्ड के गढ़वाल में स्थित नई टिहरी में है। ओम की गूंज, शंखनाद, हवन का धुआं और सुगंध का एहसास होने लगता है और हम पहुच जाते हैं मां सुरकण्डा के दर्शन को। देवभूमि उत्तराखण्ड ही एक ऐसी जगह है जहां प्रकृति और उसका कृतिकार दोनों एक साथ मौजूद हैं। पहाड़, नदी, झरने, हर तरफ हरियाली तथा सुंदर मौसम सभी यहां उपलब्ध है। साथ-साथ यहां कई प्राकृतिक और ऐतिहासिक स्थल भी दर्शनीय हैं।





     टिहरी में ठण्डी हवा का एहसास है। यहां की हरी-भरी वादियॉ मन की गहराईयों को छूती हैं तथा आसमान को छूते चीड़ व देवदार के वृक्षों की तो छटा ही निराली है। हिमालय की श्रृंखला, झील की सुन्दरता व उनके बीच बादलों के अनोखे दृश्य मानो हमें अपनी ओर आकृषित करते हों। सुबह का सूरज मानो अपनी किरणों को फैलाकर हिमालय को सोने की तरह चमका रहा है। बादल हमारे बराबर खड़े होकर यह दर्शा रहे हों कि जैसे हम स्वर्ग में आ गये हों। प्राकृतिक सौन्दर्य का ऐसा दृश्य जो आपके दिल में बस जाए और आप वहां से जाना ना चाहें। बरसात के बाद यह प्राकृतिक दृश्य और भी मनोहारी लगने लगता है। यह सुन्दरता दिल को छूने वाली होती है। 


   


    उत्तराखण्ड के इस खूबसूरत शहर में कुछ धण्टों में ही पहुचा जा सकता है।हरिद्वार से टिहरी लगभग 110 किमी. दूर है। ये लगभग 3-4 धण्टे का सफर है। हम हरिद्वार से बस से सुबह निकले। मौसम बहुत सुहावना है और हम ठण्डी-ठण्डी हवा के साथ गाते-गुनगुनाते ऋषिकेश, नरेन्द्र नगर, चम्बा के रास्ते से होते हुए पहुच गये टिहरी। टेढ़े-मेढ़े रास्ते, आकाश छूते वृक्ष, कलकल करते झरने, सूरज की किरणों के साथ ठण्डी-ठण्डी हवा, सच में किसी को भी रोमांचित कर सकता है। यहां पर हम गायत्री शक्तिपीठ में रूके। यहां का शान्त वातावरण सचमुच बहुत ही अद्भुत है। थोड़ी देर रूकने के बाद हम कोटेश्वर के लिए निकले। यह यहां से लगभग 40 किमी. दूर है। यहां पर शिव जी का एक प्राचीन मन्दिर है।


      
    कुछ कारण वश हम वहां नहीं पहुच पाए किन्तु रास्ते में हमने ‘टिहरी डैम’ देखा जो एशिया का सबसे बड़ा डैम है। कहते हैं कि पुराना टिहरी इस डैम के बनने से डूब गया। यहां का रास्ता बहुत ऊगड़-खाबड़ है लेकिन यहां का नजारा सचमुच देखने लायक है। ठण्डी-ठण्डी हवा जो हिमालय छूकर आई हो, रूई जैसे बादल हमारे पास आ रहे हो, हरे-भरे वृक्ष खुशी से झूम रहे हों, तो उसे देखकर लगता है कि हम किसी स्वप्नलोक में आ गये हो। कुछ ऐसे ही सपनों के साकार रूप को देखते हुए हम गुरूद्वारे गये और मत्था टेका। शाम होते ही हम शक्तिपीठ वापस आ गये।


  




 




     रात का खाना हम सबने मिल कर बनाया जो कि वास्तव में बहुत स्वादिष्ट बना था। साथ में खाना खाने के बाद हम थोड़ी देर छत पर टहले और उस विशेष अनुभूति का अनुभव किया। रात में पहाड़ों पर चमकने वाली लाइट ऐसी प्रतीत हो रही थी कि मानो दीपावली हो। कुछ देर हमने साथ बैठकर मनोरंजन किया और फिर हम सब सोने चले गये। सुबह सूर्य की किरणें जब हमारे ऊपर पड़ी तब हमारी ऑख खुली और हमने उस हसी नजारे को देखा जो कि बहुत ही लुहावना था। सूरज की किरणें बर्फ को चांदी जैसा चमका रही हैं तथा यही चमक पूरे वायुमण्डल पर एक नई आभा बिखेर रही है। इतने दिव्य वातावरण में चिड़ियों का चहचहाना व मधुर-मधुर संगीत जैसे अपनी ओर खींच रहा हो। इसके बाद हम मॉ सुरकण्डा देवी के दर्शन को निकले।



      


     





     पहले हम बस से चम्बा गये जो कि यहां से 40 किमी. की दूरी पर है। फिर चम्बा से हमने गाड़ी की। गाड़ी से लगभग 30 किमी. की दूरी तय करने के बाद हमने चढ़ाई शुरू की। जय माता दी के जयकारे लगाते हुए हम पहुच गये उस स्थान पर जिसके लिए हमारे मन में असीम इच्छाएं थीं मॉ सूरकण्डा के दरबार में। यह एक शक्तिपीठ है। मान्यता है कि 51 शक्तिपीठों में यह बहुत ही महत्वपूर्ण शक्तिपीठ है जहां मॉ भगवती का सिर गिरा था। यहां के दिव्य वातावरण में मॉ की पूजा-अर्चना कर एक अद्भुत शान्ति प्राप्त हुई। मुख्य मन्दिर अभी निर्माणाधीन है।





    यहां के प्राकृतिक दृश्यों का गुणगान करना अत्यन्त कठिन है। यहां का मौसम बहुत ही सुहावना रहता है। कभी धूप कभी छांव जैसी स्थिति बनी रहती है। ठण्डी-ठण्डी हवा के साथ धूप व पानी की बौछारें। बादल ऐसे लगते हैं जैसे उनको आसानी से पकड़ा जा सकता है। यहां से सहारनपुर, देहरादून, मसूरी आदि के आस-पास के गांव भी दिखाई देते हैं। कुछ देर वहां रूकने के बाद हम नीचे उतर आए। वहां हमने मैगी खाई और चाय पी और फिर हम चल दिए पहाड़ों की रानी मसूरी। यहां का रास्ता बहुत ही सकरा है एक तरफ आकाश छूते पहाड़ तथा दूसरी तरफ धरती नापती खाईं। साथ ही यहां के गोल घुमावदार रास्ते, जो पृथ्वी के साथ हमें भी घूमने का एहसास कराते हैं।


     
  लगभग डेढ़ धण्टे में हम मसूरी पहुच गये। समय न होने के कारण रास्ते में पड़ा इको पार्क घनोल्टी व मसूरी नहीं घूम पाए, किंतु बाजार के रास्ते से होते हुए हम किताब घर पहुचे, जहां से हमने देहरादून के लिए बस ली। रास्ते में झील व प्राचीन शिव मन्दिर देखा और हम पहुच गये उत्तराखण्ड की राजधानी देहरादून में। यहां पहुचते-पहुचते समय भी अधिक हो चला था और हमें भूख भी लग आई थी इसलिए हमने यहां खाना खाया और फिर बस पकड़ी हरिद्वार की। बस में हमने खूब मस्ती की, अन्ताक्षरी खेली और पूरा सफर ऐसे ही कट गया। एक धण्टे में हम अपने घर हरिद्वार वापस आ गये लेकिन लगता है जैसे हम खुद को वहीं छोड़ आए हैं। साथ हैं तो बस वहां की मीठी-मीठी यादें.........




   सच में इस पूरी यात्रा का अनुभव बहुत ही अनोखा रहा। वहां लगा कि बस हमारा सफर वहीं रूक जाए। अगर आप भी धरती पर जन्नत देखना चाहते हैं तो यहां अवश्य जाएं। हमने वहां पर इतने सुन्दर दृश्य देखे जिन्हें कैमरे में कैद करना मुश्किल है उन्हें तो केवल आंखों में बसाया जा सकता है। फिर भी अपने कैमरे को हमेशा अपने साथ रखें जिससे बाद में वह आपकी यादों को ताजा कर सके। साथ ही प्लानिंग करके जाएं तथा गर्म कपड़े जरूर लेकर जाएं क्योंकि पहाड़ों पर कभी भी मौसम बदल सकता है और ठण्ड पड़ सकती है। जिन्हें पहाड़ों पर जाते समय वोमेटिंग की समस्या हो वो अपने लिए आवश्यक सामग्री जैसे- दवाएं, नींबू, इलायची, टॉफी आदि अपने साथ रखें।

Monday, October 17, 2011

यादें





हर किसी की जिन्दगी में होती हैं यादें.....
एक कमी का एहसास कराती हैं यादें,
जीवन के हर मोड़ पर याद आती हैं यादें.....
कभी हंसाती हैं तो कभी रूलाती हैं यादें,
ये यादें ही तो हैं जो हमारे दिल के पास होती हैं....
ये यादें ही तो हैं जो जीने की आस होती हैं।
        ऐसे ही यादों का कारवां चलता रहता है....
        मिलने-बिछुड़ने का सिलसिला बढ़ता रहता है,
        कुछ दिल में बस जाते हैं यादें बनकर....
        तो कुछ याद आते हैं यादें बनकर,
        ये यादें ही हैं जो बहुत खास होती हैं....
        ये यादें ही तो हैं जो जीने की आस होती हैं।
तभी तो जिन्दगी का अनमोल तोहफा कहलाती हैं यादें....
वक्त बेवक्त अपनी याद दिलाती हैं यादें,
कभी यादों में बातें तो कभी बातों में यादें....
कभी सोचने बैठो तो याद आती हैं वो हसीं मुलाकातें,
ये यादें ही तो हैं जो महज एक इत्तेफाक होती हैं.....
ये यादें ही तो हैं जो जीने की आस होती हैं।

Monday, September 26, 2011

आंसू


ये आंसू भी बड़े अजीब होते हैं....
पर शायद दिल के सबसे करीब होते हैं,
कभी चाहो तो भी नहीं आते और
कभी न चाहो तो भी आ जाते हैं।
        कभी प्यार में तो कभी तकरार में....
        या रहरहकर किसी के इन्तजार में,
        कभी किसी से मिलने की खुशी में,
        तो कभी किसी से बिछड़ने के गम में।
कभी किसी की यादों में....
तो कभी याद आईं बातों में,
कभी अकेलेपन के एहसास में,
तो कभी सभी के साथ में।
        कभी मजबूरियों के हालात में.....
        तो कभी गलती के पश्चाताप में,
        कभी दर्द की पुकार में,
        तो कभी दुआ की आवाज में।
कभी ये मन को हल्का करते हैं....
तो कभी किसी के कुछ न कहने पर निकलते हैं,
कभी मुसीबत में आते हैं,
तो कभी हौसला बन जाते हैं,
         कभी ये हाले दिल बयां करते हैं....
         तो कभी किसी के अल्फाजों पर छलकते हैं,
        कभी किसी कहानी को सुनकर बरसते हैं,
        तो कभी एक नई कहानी रचते हैं।
सच में ये आंसू बड़े अजीब होते हैं....
तभी तो शायद दिल के सबसे करीब होते हैं।
   

Wednesday, September 21, 2011

मेरी अभिलाषा




सोचती हू कि आखिर क्या है जीवन की परिभाषा,
कब और कैसे समझ पाऊंगी मैं इसकी भाषा.....
वो ईश्वर ही है, जिसने हम सबको है बनाया,
पर इंसान अब तक उसकी महिमा जान न पाया।
                     आज मेरे दिल में एक ख्याल आया,
                     खुद को जानने का एक विचार आया......
                     मै कौन हूं, अपने को पहचानूं,
                     अपने इस जीवन के उद्देश्य को जानूं।
जितना जानने की कोशिश करती उतना ही खो जाती,
पर अपने इस जीवन के मर्म को जान न पाती.....
जितना अब तक जाना, उससे यह विश्वास पाया है,
बिन तुम्हारी कृपा के कुछ नहीं हो पाया है।
                     अब तो हर पल बस एक ही आजमाइश है,
                     तुम्हें सिर्फ तुम्हें पाने की ख्वाहिश है।
                     क्या जाने कब पूरी होगी मेरी अभिलाशा,
                     इसकी खातिर ही तो है मुझे जीने की आशा।

Tuesday, September 6, 2011

Dormy 14



हॉस्टल लाइफ मस्त है यार,
एक तरफ झगड़ा तो दूसरी तरफ प्यार ही प्यार।
आओ दिखाएं तुम्हें Dormy 14 का नजारा,
ये छोटा-सा प्यारा सा घर है हमारा।
                       इससे पहले की बात आगे बढ़ जाए,
                       इन 8 Angles का Brief Intro हो जाए।
सबसे पहले आती है मॉडल अंकिता की बारी,
जो लिखती है Poem बहुत प्यारी प्यारी।
रह-रहकर जो मम्मी मम्मी चिल्लाए,
शरारती दिव्या Dialogues सुनाए।
                     छोटी-सी प्यारी सी है रचना भटट्,
                     पूरे U.K. की सैर करा दे फटाफट।
जैसा की आप जानते ही होंगे,
जग्गू माता को तो पहचानते ही होंगे।
Management का काम जहां है,
नवनीता मिश्रा का नाम वहां है।
                    अगर आपको Mimicry देखना है तो कहीं मत जाइए,
                   हमारी प्यारी ज्योतिशिखा उर्फ धन्नो को बुलाइए।
जिसका P.R. है जबरदस्त,
अपनी प्रियंका मोटी है बड़ी मस्त।
इसके साथ ही ये Intro हुआ पूरा,
लेकिन अभी ये सफर है अधूरा।
                  हमारी Dormy में कुछ Changes हुआ है,
                 प्रियंका शर्मा का Replacement हुआ है।
उसकी जगह आई है एक नई Member वन्दना सिंह,
जो पढ़ती है Tourism और करती है Sketching.
Last मे आता है सलोनी यानि मेरा Turn,
जिससे होता है इस Sweet-सी Poem का End.
                 ये है Dormy 14, जहां से शुरू हुआ ,
                 D.S.V.V. में सलोनी का सफर।

Thursday, September 1, 2011

क्यों

 अकसर ऐसे हालात बनते क्यों हैं ?
लोग हर मोड़ पर अटकते क्यों हैं ?
छोटी-सी हालत से डर जाते हैं ,
जब इतना डरते हैं तो घर से निकलते क्यों हैं ?
                              मैं न जुगनू हू, न दिया हू, न तारा हू ,
                             फिर रोशनी वाले मेरे नाम से जलते क्यों हैं ?
                            नींद से मेरा कोई वास्ता है नहीं ,
                            तो ख्याब आकर मेरी छत पर टहलते क्यों हैं ?
जिस मोड़ पर संभलना होता है सबको ,
उसी मोड़ पर आकर बहकते क्यों हैं ?
कहना चाहती हू उनसे,
पर अल्फाज़ होठों पर आकर रूकते क्यों हैं ?
                          अभी वक्त है जान लो उस सच को ,
                         फिर मत कहना मेरे साथ ही ऐसा क्यों है ?

Monday, August 29, 2011

श्रद्धा, सौहार्द व रोमांच का त्रिवेणी संगम: गंगोत्री

गंगोत्री
गंगा के वेग से कलकल करती, वर्फ की सफेद चादरों से लिपटी, ऊचे- ऊचे पर्वतों के दृश्यों से सराबोर कर देने वाली भूमि गंगोत्री जिसे उत्तराखंड के चार धामां से एक जाना जाता है, जो ना सिर्फ हिन्दुओं की एक पावन तीर्थस्थली है बल्कि प्रकृति व पर्यटन में रूचि रखने वालों के लिए यात्रा का एक गंतव्य भी। 

गंगा
     समुद्र तल से 3140 किलो मीटर की ऊंचाई पर स्थित गंगोत्री ही वह स्थल है, जहां से देश की सबसे लम्बी व हिन्दुओं की पावन नदी मां गंगा का उद्गम हुआ यह उद्गम स्रोत स्थिति है गंगोत्री से 18 किमी दूर गोमुख ग्लेश्यिर में। पुराणों में ऐसा वर्णित है कि यह धारा कैलाश से शिवजी की जटाओं से निकलती है, और वहां से गंगोत्री तक सैकड़ों मील का रास्ता तय करके पहंचती है। यहां पर तपस्या कर भागीरथ गंगा को पृथ्वी पर लाये थे। इसीलिये इसे भागीरथी नाम से भी जाना जाता है।

उदगम स्रोत गोमुख
रास्ता
  
      भागीरथी यहां से उत्तर दिशा की ओर बहती है, इसलिये इस स्थान का नाम गंगोत्री पड़ा। यहॉ तीर्थालु गंगा किनारे बने गंगा माता के मंदिर के दर्शन करते हैं कुछ साहसी यात्री जो गंगा के वास्तविक उदगम स्रोत  को देखना चाहते हैं उन्हें गोमुख तक 18 किमी की पदयात्रा करनी पड़ती है हालांकि घोड़े खच्चर करके भी जाया जा सकता है किंतु यह घोड़े भोजवासा तक ही जाते हैं उसके आगे 6 किमी की रास्ता पैदल ही पार करना पड़ता है। आगे का मार्ग अत्यंत ही जोखिम भरा है। बड़ी बड़ी चट्टानों व उनपर कहीं कहीं जमी हुई वर्फ के बीच रास्ता अपने आप बनाना पड़ता है।


Sunday, August 28, 2011

प्रकृति की गोद में देवदर्शन यात्रा श्री बद्रीनाथ की


गर्मी की छुट्टियों का सदुप्रयोग अगर भगवान बद्री विशाल के दर्शन करके किया जा सके तो इससे अच्छी बात और क्या होगी। कुछ जगह ऐसी होती हैं जहां कदम रखते ही मन पवित्र अनुभूतियों से भर जाता है, श्रद्धा से शीश झुक जाता है। हिमालय की गोद में स्थित बद्रीनाथ की डगर पर बढ़ते ही ओम की गूंज, शंखनाद, हवन का धुआं और सुगंध का एहसास होने लगता है और हम पहुॅच जाते हैं देवदर्शन को बद्रीनाथ। देवभूमि उत्तराखण्ड ही एक ऐसी जगह है जहां प्रकृति और उसका कृतिकार दोनों एक साथ मौजूद हैं। पहाड़, नदी, झरने, हर तरफ हरियाली तथा सुंदर मौसम सभी यहां उपलब्ध है। धामों के साथ-साथ यहां कई प्राकृतिक और ऐतिहासिक स्थल भी दर्शनीय हैं।
   

हमने अपनी यात्रा हरिद्वार से शुरू की, जहां से बद्रीनाथ की दूरी 292 किमी0 तथा समुद्र तल से  ऊंचाई 10,300 फुट है। हमने सुबह बहुत जल्दी ही यात्रा शुरू की। हरिद्वार में हर की पौड़ी पहुंचकर हमने गंगा में डुबकी लगाई। वहां से स्नान-पूजन के बाद हमने ऋषिकेश के लिए प्रस्थान किया। इसके पश्चात् सबसे पहले हम देवप्रयाग पहुंचे। यहां भागीरथी और अलकनंदा नदियों का संगम होता है। साथ ही ये पंच प्रयाग जिनमें देवप्रयाग, रूद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, सोनप्रयाग व विष्णुप्रयाग हैं। इसके बाद रूद्रप्रयाग से कर्णप्रयाग की ओर चले। इसके आगे नंदप्रयाग है जो मंदाकिनी और अलकनंदा का संगम स्थल है।

    इसके आगे जोशीमठ आता है जिसे ज्योतिर्मठ भी कहते हैं। यह आदि गुरू शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार मठों में से एक है। इसे बद्रीनाथ का प्रवेश द्वार भी कहते हैं। जाड़ों में जब अत्यधिक बर्फ के कारण बद्रीनाथ मंदिर के कपाट बंद किए जाते हैं तब छह माह तक बद्रीविशाल की पूजा यहीं की जाती है। यहां रात में रूकने के बाद हमने सुबह आगे की यात्रा शुरू की। 30 किमी0 पर आखिरी प्रयाग विष्णुप्रयाग आता है, जहां धौलीगंगा व अलकनंदा का संगम होता है। इसके साथ ही हम पहुंचते हैं उस स्थल पर जिसके लिए हमारे मन में असीम इच्छाएं थीं। जयकारों के बीच पहाड़ों के पीछे से निकलकर जैसे ही हम बाहर आए, हमें वहां परम धाम बद्रीधाम के दर्शन मिले।

   बद्रीनाथ एक तीर्थ स्थल होने के साथ-साथ एक स्मरणीय पर्यटन स्थल भी है। पहले ये बदरी वन के नाम से जाना जाता था। बदरी का शाब्दिक अर्थ बेर और बादल होता है। बेर के वृक्ष तो अब यहां पाए नहीं जाते, परंतु बादल लगातार पर्यटकों के साथ आंख-मिचौली खेलते हैं। यहां का मौसम काफी अस्थिर रहता है। बद्रीनाथ पहुंचकर यदि रात्रि में बाहर निकलेंगे तो लगेगा कि आकाश इतना पास है कि तारों से बातचीत की जा सके। बद्रीनाथ वैष्णव लोगों के लिए सबसे उच्च मंदिर माना जाता है। यहां भगवान विष्णु बद्रीनाथ के रूप में विराजते हैं। मंदिर के बाहर ठीक नीचे गर्म पानी का कुण्ड है, इसे तप्तकुण्ड कहते हैं। यहां स्नान कर यात्री मंदिर के दर्शन करते हैं। इसके निकट ठण्डे जल का स्त्रोत नारदकुण्ड नाम से जाना जाता है। मंदिर के ठीक पीछे नीलकंठ पर्वत है।

   बद्रीनाथ की यात्रा के दौरान प्राकृतिक सौंदर्य का बखान नहीं किया जा सकता। एक तरफ बर्फ से आकाश छूती चोटियां, दूसरी ओर अनेक ग्लेशियर देखने को मिलते हैं और तीसरी तरफ घाटी में अलकनंदा भी अपना वेग दिखाती रहती है। बद्रीनाथ का संपूर्ण मार्ग गहरी घाटियों, घुमावदार चक्करों एवं प्राकृतिक छटा से परिपूर्ण है। इस मार्ग में अनेक दर्शनीय स्थल हैं, जिनमें फूलों की घाटी, हेमकुण्ड साहिब, देवप्रयाग, रूद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, नंदप्रयाग एवं जोशीमठ आदि प्रमुख हैं।

Wednesday, August 24, 2011

भ्रष्टाचार


आज ये हाल है, सभी लोग बेहाल हैं,
आजाद भारत में भ्रष्टाचार की मार है।
भ्रष्टाचार की जड़ों को है अब उखाड़ फेकना,
चाहे इसके लिए पड़े हमें अपनी जान से खेलना।
          वो दिन दूर नहीं जब सफलता का सूरज निकल आएगा,
          सोने की चिड़िया भारत फिर से कहलाएगा।
          जरूरी है बनाओ अपना चरित्र महान,
          कागज के चंद रूपयों की खातिर अब बेचना मत अपना इमान।
दिन में है अंधियारा और रात उजियारी,
अगर करना है भ्रष्टाचार को दूर तो दिखानी होगी समझदारी।
बस आखिर में इतना कहना है-
          एक अकेला इंसान नहीं कर सकता सब कुछ
          एकता ही वह शक्ति है जो बदल सकती है सब कुछ
          साथ मिला सबका तो देश से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा
          वरना एक इंसान अकेला ही मिट जाएगा।